कोफ्त होती है उन हसिनाओं से,
जो फँसा लेती हैं सबको प्यार से,
ज़माना तो ज़माना है हमसे तो वो,
“साहेब”ही रहते हैं हरवक्त नाराज़ से।
होड़ ‘मुखोटों’ की लगी देखो बड़ी शान से,
लड़ी तब भी मैं बचाने उन्हे झूठे अभिमान से,
नकली चहरे पे चहरे ही पसन्द हों उन्हें जैसे,
सारे सच धरे के धरे रहे उन्हें नागवार से।

एक बुरो प्रेम को पंथ , बुरो जंगल में बासो
बुरी नारी से नेह बुरो , बुरो मूरख में हँसो
बुरी नारी कुलक्ष , सास घर बुरो जमाई। “कवि गंग“
कोई ढोंग बेचारी का रोना रोने से,
कोई बहलाकर ज़हरीली मुस्कान से,
फुसला लेती हैं, अपने तीन पाँच से,
मैं लड़ती रही खुद ही, खुद के पहचान से। ©ज्योत्स्ना “निवेदिता”
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