भँवर

यूँ उनसे प्रीत की रीत मैने कब जोड़ी याद नहीं,

टूटी कैसे वो भुलाये भूलती नहीं है,

आज मन फट सा गया अपनी तारीफें पढ़कर

की अब लेखनी कतई लुभाती नहीं है।

वो गुस्सा नहीं ईर्ष्या थी जो सताती रही,

डर था तूँ उनकी ओर खींचता जाता रहा,

दूरियां जब बर्दाश्त न हुई तो कचोटती रही,

पर नादान तेरा दिल उसे समझा ही नहीं।

दुख नहीं कि मुझे मेरे ग़लती की सज़ा मिली,

गलतियां करती ही थी तुझसे सुधरवाने के लिए,

चरित्रहीन तो नहीं थी जो आज वो उपाधी मिली,

रोष के “भँवर” में फँसी तेरे प्यार में मेरी न चली।

©ज्योत्स्ना “निवेदिता”


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One response to “भँवर”

  1. Madhusudan Avatar

    Dard bhari kavita …..behtarin likha hai.

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