पशोपेश

कैसे पशोपेश में फसें हम,
खुद ही खुद से डरे हम,
इंसान तो हर ओर जीवित है,
किन्तु इंसानियत हुई क्षीर्ण है,
बनते अच्छाई के पुतले हम,
परछाई से भी भयभीत हम।
असल और नकल में उलझे,
जाने क्या सोच रहे हैं हम,
शंकित हर किसी पे हम,
एक अदृश्य हथियार से,
जाने वाले को देखते रहे,
जड़ ठूंठ बने खड़े हम,
पल भर को मुझपर भी,
इस विचार का छाया तम,
अगले ही क्षण छँट गया,
फिर उजला हुआ यह मन,
सत्य है नहीं होंगे परास्त हम,
लड़ेंगे और होंगे विजयी हम,
डरो नहीं घबराओ नहीं,
हैं हिन्द के निवासी हैं अजय हम..
©ज्योत्स्ना “निवेदिता”


Posted

in

by

Comments

2 responses to “पशोपेश”

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *