ज्योत्स्ना “निवेदिता”
अंधकूप महा भयान
छाया आत्म अभिमान
घोर तिमिर पारावर
काल पर होकर सवार
मचा रहा है हाहाकार
हर और छाया है रुदन
स्वान करते हैं क्रंदन
सब के बीच एक कोमल
“मन” सुंदर मेरा मोहन
बैठ मधुर मधुर मुस्काए
एक डोर प्रेम की हिलाए
दूजा मधुर बांसुरी बजाए
सबकी रक्षा करने वाला
जाने कैसा खेल रचाए
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