माँ भारती

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आग हूँ अंगार हूँ, तपते हुए रेगिस्तान में एक सर्द रात हूँ,
हसरतें भर रह गयी हैं शांत माहोल की,
कल्पनाओं में लड़ रही हूँ लड़ाई अपने बचाव की ,
अन्दर से  लावा खवल रहा  , सीना छलनी दाहक रहा है,
तमाम दुखों और दर्द को झेले संसार की शशक्त कमज़ोर कड़ी हूँ।
बाहर वाले बाद में खाएंगे मेरे बेटे मुझे नोच रहे हैं,
सोना चांदी उरानियम क्या कोयला तक को चबा रहे हैं,
जो रक्षक थे वोही  भक्षक हैं भक्षण मेरा कर रहे ,
और में एक माँ चुपचाप उन सांपों को दूध पिला रही हूँ
क्या रंग भेद , जात पात, लिंग भेद थे कम पड़े
जो मेरा बंटवारा करने आज  चले हो…
राज्यों में मुझको पहले ही  बांटा
आज खण्डों में खंडित होने जा रही हूँ…
असाम के राज में, बंगाल के कण में हूँ
बिहार का खनिज हूँ तोह महाराष्ट्र की जमीन भी में ही हूँ
में  वो दुखी  भारत हूँ जो कभी सोन चिरैय्या थी
आज क्षुब्ध ,दुखी, असहाय, और लाचार हूँ …. “Nivedita”

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One response to “माँ भारती”

  1. dhirajanand Avatar

    मर्मस्पर्शी, शब्द नहीं हैं।

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