ख्वाब

मेरे उन आंसुओं का कोई मोल तुझे इसलिए नहीं क्योंकि बोली मेरे आँखों की ही मालिक ने लगाई नहीं , ख्वाब झूठे दिखाए ख़ुशी कभी दिखाई ही नहीं…

ख्वाबों में जागना मेरी फितरत हो चली , तूँ उस अधूरे ख्वाब की उलझन है जिसे सुलझाना मेरी अड़चन हो चली ।।

हर रात सुबह तुझसे बात करूँगा कहकर सोना हर सुबह उन बातों से पलटना तेरी फितरत हो चली , फिर भी उन झूठे वादों की तामीर का इंतज़ार करना हद हो चली ,
और दिन रात बस तड़पते हुए रोना मेरी फितरत हो चली ।। ..

जानती हूँ पढ़कर भी अनदेखा करना तेरी फितरत है और उस बेदर्दी बेफिक्री का इत्मिनान से इंतज़ार करना मेरी फितरत हो चली ,.. निवेदिता


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One response to “ख्वाब”

  1. dhirajanand Avatar

    ग़लतियों को आदत और आदत को फ़ितरत बन ने में देर नहीं लगती। दर्द को शब्दों में ख़ूब संजोया है।

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