वो छतों की डोलियाँ जिन्हें फलंगते थे कभी पतंग लूटने को .. वो गलियाँ आज सूनी पड़ी हैं , बस बची हैं वो बारियाँ वो किवाड़, वो लोह लक्कड़ .. सब घरों में दुबकें हैं TV कम्प्यूटर , whatsap , खेल भी indoors खेलने वाले भी IN doors..
वो कटुक नीम की निम्बोरी , वो मंझों में उलझे तार , वो सहेलियां, सायकिलों की घंटियाँ लगाती आपस में होड़ , वो भगवाँ झंडा मंदिर की प्रभात फेरी , वो झाँझ की आवाज़ , वो कूकती कोयल और वो बोलते मोर , और सबके हम बीच फलाँगते डोलियाँ .. आज सब यादें हैं और हैं बस सन्नाटा












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