वो डबडबाई आंखें नम थीं
हमेशा से रौनक कम थी
शायद दर्द छलक आया था
आज फिर बहक आया था
यादों की उन गलियों में
जहां कभी तेरा घर था
तंग जर्जर सी वो इमारत
जहां इश्क का बसेरा था
आज बस सुनसान है
गूंजती है वहां तेरी हंसी
मानो तू है पास वहीं कहीं
मैं आज भी खो जाता हूँ
जब उस डोली पे बैठता हूँ
उन खामोशियों के शोर में
बन्द मुंह से चिखने लगता हूँ
पुकारता हूँ बस तुझे बार बार
माँगता हूँ ईश्वर से फिर एक बार
इस बार नहीं जाने दूंगा तुझे,
रोक लूंगा भरकर बाहों में तुझे। ज्योत्स्ना “निवेदिता”

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