नदिया नाले थम गए हैं
नीड़ को पंछी लौट रहे है
खेल रहा है सूरज लुकछिप
जल में छाया उसका प्रतिबिंब
अलसायी सी है दुपहरी
यादों की अरूणाई गहरी
शंख नाद मंदिर में होते
ज्योत जल रही है सुनहरी
गौधुली में उड़ती गोरज
बिखेर रही है आभा स्वर्णिम
ढलती सूर्य की किरणें अंतिम
हो रही रात्रि को प्रेरित
हूक उठती रह रहकर हृदय में
मोर पिकता पंचम स्वर में
सोच रही विरहणी मन में
ये कैसी सांझ आई जीवन में.. ज्योत्सना “निवेदिता”

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