मैं धरती वो अम्बर
वो रहते हैं शीर्ष गगन पर
मेरी नज़रें भी जहां नहीं पहुँचे
उनका मुक़ाम है इतना ऊपर
बस छूने की चाहत लिए मन में
मेघ सुस्ता रहे हैं उत्ताल शिखर में
एक आलिंगन हो धरा अम्बर का
हो मिलन हरितिमा और गगन का
नभ सींचे धारा को प्रेम की बूंदों से
हो संगम अप्रतिम किरणों से
बुझे प्यास मरू की आज जन्मों से
करें आधरामृत का पान धरा के “अधर” से
ज्योत्सना “निवेदिता”
*अधर – नीचा, निचला होंठ
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